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Real heros!
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More power to y'all!! 🙌
Equality is also about recognition. Recognise women as defacto heads of households as they work, care for, worry about, and plan for their families. Economic decisions for the well being of the family are increasingly taken by women, especially during crisis times like the pandemic and the cost of living crisis we are in now.
As always, our story today is about 50-year-old Sukharaniya, mother of five daughters and a boy. She is of the Valmiki caste (historically oppressed), works as a contractual worker with the municipality and makes artisanal baskets out of bamboo - a traditional occupation she was taught in her childhood. Sukharaniya has to work two equally demanding jobs to take care of her family, but recognition as the head, the breadwinner eludes her.
50 साल की सुखरनिया अपने घर को चलाने के लिए आज भी दो जॉब करती है. वाल्मीकि जाति की यह महिला चित्रकूट जिले के नगर पालिका में ठेके पर काम करती है यानी कोंट्राक्टुअल वर्कर है. लेकिन उसके बड़े परिवार के भरण पोषण के लिए सुखारनिया रात-दिन काम के बारे में ही सोचती रहती है.
9000 रुपये प्रति महीने के वेतन में सुखरनिया को अपना घर चलाना है और बच्चों को शिक्षा भी दिलाना है. इसलिए बच्चों ने 8 वी कक्षा के बाद पढ़ना छोड़ दिया है. पैसा कमाने के लिए सुखरनिया ने अपने पुरखों का काम करना शुरू कर दिया है - बांस की डलिया बनाना.
नगर पालिका में काम खत्म होने के बाद सुखरनिया बांस के काम में लग जाती है. 300 रुपये के हिसाब से बांस खरीदती है, फिर उसे छीलकर उनकी डलिया बनाती है, जिसमे 8 डलियां बन जाती है. इसका 1000 रुपये तक मिल जाता है.
सुखरनिया को घर के काम की चिंता नहीं है क्यूंकि बेटियां यह सब संभाल लेती है. वो तो दिन में दो डलियां बना लेती है, लेकिन ये काम आसान नहीं है. इसमें मेहनत बहुत लगती है और बारीकी से काम करना पड़ता है.
इस काम को सुखरनिया ने अपने मायके में बचपन में सीखा है, जो पुरखों का काम आज उसके परिवार का पेट पाल रहा है.